भारतीय संस्कृति और आध्यात्मिक परंपरा अपनी गहराई, सूक्ष्मता और दार्शनिक व्यापकता के लिए पूरी दुनिया में सम्मानित है। इस संस्कृति में स्त्री-देह को केवल भौतिक शरीर नहीं माना गया, बल्कि उसे शक्ति, सृजन, पोषण और दिव्यता का केंद्र समझा गया। इसी स्त्री-शक्ति का सर्वोच्च प्रतीक है—योनि, जिसे वेद, उपनिषद, आगम, तंत्र और शैव-शाक्त परंपराओं में सृष्टि का प्रथम स्रोत कहा गया है।
किंतु दुख की बात है कि इतिहास के कुछ चरणों में वैराग्य-प्रधान, शरीर-विलोपी और संन्यासवादी विचारधाराएँ फैलते हुए इस पवित्र प्रतीक को गलत ढंग से प्रस्तुत करने लगीं। कुछ लोगों ने स्त्री-शरीर को ‘माया’, ‘बंधन’, ‘भोग का माध्यम’ या ‘नरक का द्वार’ जैसे शब्दों से जोड़ा—जो न तो वेदसम्मत थे, न तंत्रसम्मत, और न ही भारतीय समाज की प्राचीन मातृ-शक्ति परंपरा के अनुकूल। यह गलतफहमी आज भी कई लोगों के मन में बनी रहती है, जिसके कारण केवल नारी का ही नहीं बल्कि हमारी देवी-उपासना, जन्म परंपरा और सृष्टि दर्शन का भी अपमान होता है।
वास्तविकता यह है कि जिस स्थान से समस्त मानव जाति जन्म लेती है, जिसे शक्ति का आसन कहा गया है, जिसे देवी का रूप माना गया है—उसे ‘नरक’ कहना आध्यात्मिक अज्ञान है। यह लेख इसी भ्रम को दूर करते हुए यह सिद्ध करता है कि योनि न केवल सृष्टि का मूल है, बल्कि तंत्र और शैव-शाक्त मार्ग में इसे मोक्ष, जागरण और आत्मसाक्षात्कार का केंद्र माना गया है।
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1. भारतीय दर्शन में योनि: ब्रह्मांडीय सृजन का प्रारंभ-बिंदु
भारतीय दार्शनिक परंपरा में ‘योनि’ का अर्थ केवल जैविक अंग नहीं, बल्कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति का आदिप्रसूत स्रोत है। ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में ‘योनि’ का प्रयोग ब्रह्मांड की जननी शक्ति के रूप में हुआ है। ऋग्वेद 10.184 में कहा गया है:
“योनिरेवास्य जन्मनि”—अर्थात सृष्टि का जन्म एक दिव्य योनि से हुआ।
यहाँ योनि उस चैतन्य ऊर्जा का प्रतिनिधित्व करती है जिसने निराकार से आकार की प्रक्रिया आरंभ की।
वेदांत में प्रकृति और पुरुष का मिलन ब्रह्मांड की उत्पत्ति का आधार माना गया है। प्रकृति को ही ‘मूल-योनि’ कहा गया है, जिससे पंचमहाभूत, इंद्रियाँ, मन, बुद्धि—सबका जन्म होता है। इस दृष्टि से ‘योनि’ मात्र शरीर का अंग नहीं, बल्कि अस्तित्व के उद्भव का पहला द्वार है। इसलिए किसी भी दार्शनिक दृष्टि से इसे ‘नरक’ से जोड़ना असंगत ही नहीं, अपमानजनक भी है। अगर सृष्टि के मूल को ही अपवित्र समझ लिया जाए तो संपूर्ण जगत की पवित्रता पर प्रश्न उठने लगते हैं।
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2. देवी-परंपरा में योनि: शक्ति, चैतन्य और देवीत्व का परम प्रतीक
भारतीय शाक्त परंपरा में शक्ति सर्वोच्च मानी गई है। देवी न केवल जगत की रक्षिका बल्कि सृष्टि की जननी भी हैं। शक्ति-पंथ में ‘योनि’ देवी के स्वरूप का ऐसा अंग है जिसे अत्यंत पवित्र माना गया है—क्योंकि वह उत्पादन, सृजन और ऊर्जा-वितरण का मुख्य स्थल है।
कौलज्ञाननिर्णय, तंत्रसार, त्रिपुरा-रहस्य, कालीतंत्र और कामिका आगम जैसे तांत्रिक-शास्त्रों में योनि को “शक्ति का सिंहासन”, “ब्रह्म का प्रतीक” और “मुक्ति का द्वार” कहा गया है।
कौलज्ञाननिर्णय में उल्लेख मिलता है:
“योनि ही सर्वोच्च देवी का आसन है; जो योनि को समझता है, वही शक्ति के रहस्य को समझता है।”
अर्थात जो व्यक्ति योनि के प्रतीक को अपवित्र समझता है, वह शक्ति-तत्व के मूल को समझ ही नहीं सकता। देवी के अनेक रूप—जैसे काली, तारा, भुवनेश्वरी, त्रिपुरा सुंदरी—अपने विशिष्ट आसनों में योनि-प्रतीक के माध्यम से ही सृष्टि-जन्म की क्षमता को प्रकट करती हैं। शास्त्र कहता है कि देवियाँ केवल संहारक नहीं, बल्कि सृजन-शक्ति का भी प्रतीक हैं, और उसी सृजन का प्रकट रूप है—योनि।
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3. तंत्र में योनि: साधना, शक्ति-जागरण और मोक्ष का मार्ग
तांत्रिक दर्शन अत्यंत गूढ़ और वैज्ञानिक है। इसमें शरीर को ‘मंदिर’ और उसकी ऊर्जाओं को ‘देवी’ के रूप में देखा जाता है। तंत्र-शास्त्रों में ‘योनि-पूजन’ का अर्थ भोग-वृत्ति नहीं, बल्कि ऊर्जा के मूल स्रोत का सम्मान है। यह प्रतीकात्मक साधना है जो शक्ति-तत्व को जागृत करती है। तंत्रसार व कौलमार्ग के अनुसार योनि की उपासना साधक को तीन स्तरों पर ऊर्जा देती है:
1. आध्यात्मिक ऊर्जा—जिससे साधना की स्थिरता बढ़ती है
2. मानसिक शुद्धि—जिससे मनोविकारों का नाश होता है
3. कुंडलिनी का जागरण—जो मोक्ष का मार्ग खोलता है
तांत्रिक ग्रंथ कहते हैं:
“जन्म-द्वार ही मोक्ष-द्वार है।”
अर्थात जिस स्थान से जीवन आरंभ होता है, वहीं से आध्यात्मिक यात्रा भी पूर्ण हो सकती है। यह गहन शास्त्रीय दृष्टि है, न कि भोगवादी व्याख्या।
तंत्र में योनि को ‘यंत्र’ की तरह देखा जाता है—एक ब्रह्मांडीय आकृति, जिसमें नारी-ऊर्जा का सम्पूर्ण सार निहित है। इसलिए तंत्र में योनि-पूजन है, लेकिन उसका अर्थ कोई कामुकता नहीं, बल्कि चैतन्य की उच्च अवस्था है।
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4. योग व कुंडलिनी-दर्शन में योनि का गूढ़ महत्त्व
योग के भीतर विशेष रूप से कुंडलिनी-योग में ‘योनि’ शब्द का प्रयोग शक्ति-चक्रों के प्रतिनिधि के रूप में हुआ है। स्वाधिष्ठान चक्र को योनि-स्थल माना गया है, क्योंकि वहीं सृजन-शक्ति का केंद्र स्थित है। जब कुंडलिनी शक्ति इस चक्र से जागृत होकर ऊपर उठती है, तब साधक का चेतना-क्षेत्र विस्तृत होने लगता है।
इस संदर्भ में योग और तंत्र दोनों सहमत हैं कि योनि को अपवित्र की दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति की ऊर्जा-संरचना कभी शुद्ध नहीं हो सकती—क्योंकि वह सृष्टि के उस मूल-बीज को ही अशुद्ध समझ रहा है, जिससे उसका स्वयं का जन्म हुआ है।
कुंडलिनी दर्शन कहता है कि शरीर के भीतर मौजूद “योनि-मंडल” वह प्रतीक है जहाँ से साधक आध्यात्मिक पुनर्जन्म प्राप्त करता है। यही कारण है कि योग में योनि “शक्ति-चैतन्य के द्वार” के रूप में जानी जाती है, जो साधना के गहन स्तरों को खोलती है।
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5. स्त्री-देह को ‘नरक’ कहने वाली धारणाएँ कैसे उत्पन्न हुईं?
यह समझना आवश्यक है कि स्त्री-देह को नीचा दिखाने वाली धारणाएँ भारतीय मूल की नहीं थीं। अनेक बार ये विचार ऐसे संन्यासपंथों से आए जहाँ साधना का उद्देश्य शरीर और इंद्रियों से पूर्ण दूरी बनाना था। ये उपदेश विशेष परिस्थितियों में दीक्षित साधकों के लिए थे, न कि आम जनता या सामाजिक मूल्य-व्यवस्था के लिए।
बहुत से संन्यासपंथों में ‘इंद्रिय-निग्रह’ को बढ़ाने के लिए स्त्री-शरीर को ‘माया’ कहा गया, ताकि साधक भौतिक आकर्षणों से दूर रहे। लेकिन ये निर्देश व्यक्तिगत साधना की तकनीकें थीं, सामाजिक सत्य नहीं। दुर्भाग्य से समय के साथ इनका सामान्यीकरण हो गया और स्त्री-शरीर पर अनावश्यक दोषारोपण शुरू हो गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि देवी-आधारित संस्कृति में भी कुछ लोगों ने स्त्री को भोग का स्रोत मानकर उसकी गरिमा को कम करने का प्रयास किया। जबकि भारतीय धर्मग्रंथ स्पष्ट कहते हैं कि स्त्री शक्ति का स्वरूप है—और शक्ति के बिना शिव भी शव समान हैं। शैव-शाक्त परंपरा में स्त्री को नकारने की कोई भी धारणा पूरी तरह वेद-विरोधी मानी गई है।
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6. योनि को ‘नरक’ कहना धर्म, संस्कृति और सृष्टि का अपमान क्यों है?
सबसे पहले तो यह वेद की शिक्षाओं के विरुद्ध है, जहाँ योनि को सृष्टि का मूल स्रोत माना गया है।
दूसरे, यह देवी-परंपरा का अपमान है क्योंकि देवी स्वयं सृष्टि-योनि की प्रतिनिधि हैं।
तीसरे, यह माँ के प्रति अनादर है—क्योंकि हर मनुष्य उसी द्वार से जन्म लेता है जिसे वह अपवित्र कह रहा है।
चौथे, यह दार्शनिक अज्ञान की निशानी है क्योंकि तंत्र और योग दोनों इसे मोक्ष और आत्मज्ञान का प्रतीक मानते हैं।
कोई भी सभ्यता तब उच्च कहलाती है जब वह अपनी जन्मदाता शक्ति को सम्मान देती है। जो स्त्री-देह का, विशेषकर योनि जैसे पवित्र प्रतीक का अनादर करता है, वह अपनी ही उत्पत्ति का, अपने धर्म का और अपने सांस्कृतिक मूल्यों का अनादर करता है।
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7. तंत्र, आगम और शास्त्रों से प्रमाण
तंत्रसार (अभिनवगुप्त)
इस ग्रंथ में स्पष्ट कहा गया है कि
“योनि ब्रह्म का प्रत्यक्ष रूप है।”
अर्थात यह अनंत ऊर्जा की अभिव्यक्ति है।
कौलज्ञाननिर्णय
इसमें लिखा है:
“योनि उपासना से साधक शक्तिरूप हो जाता है।”
यहाँ भी उपासना का अर्थ प्रतीकात्मक ऊर्जा-साक्षात्कार से है।
देवीभागवत पुराण
देवी कहती हैं:
“मैं ही सबकी जननी हूँ; मेरा योनि-रूप सृष्टि का आरंभ है।”
त्रिक-शैवमत
कश्मीर शैवमत में योनि शिव-शक्ति एकत्व का प्रतीक है, जिसे सृष्टि का बीज कहा गया है।
इन सभी प्रमाणों से यह सिद्ध है कि योनि को ‘नरक’ कहना किसी भी प्रकार से शास्त्रीय नहीं है।
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8. आनंद, भोग और दिव्य ऊर्जा—तंत्र क्या कहता है?
अक्सर लोग योनि का उल्लेख होते ही ‘काम’ की ओर सोचने लगते हैं, क्योंकि उनका ज्ञान शरीर-स्तर तक सीमित है। लेकिन तंत्र कहता है कि आनंद का मूल स्रोत चेतना है, शरीर नहीं।
योनि का महत्त्व इसलिए नहीं है कि उससे शारीरिक आनंद मिलता है, बल्कि इसलिए कि वह सृजन-ऊर्जा की द्वारिका है।
तंत्र काम को ‘कामेश्वरी’ कहकर देवी के रूप में पूजता है, क्योंकि वह भी सृजन का माध्यम है। लेकिन इसका अर्थ भोग नहीं, बल्कि सृजन ऊर्जा की दिव्यता है।
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9. अनेक संतों और विद्वानों की दृष्टि
रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था कि स्त्री जीवन की “योनि” है—अर्थात जीवन के जन्म का माध्यम।
काश्मीर शैवमत के आचार्यों ने योनि को “शून्य का कमल” कहा है—जहाँ से अस्तित्व की यात्रा शुरू होती है।
तिब्बती परंपरा में भी ‘योनि-मंडल’ का प्रयोग सृष्टि-प्रतीक के रूप में मिलता है।
इस प्रकार अलग-अलग परंपराओं में योनि सदैव सम्मान, श्रद्धा और शक्ति का केंद्र रही है।
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10. निष्कर्ष
समस्त वेद, आगम, तंत्र, योग, उपनिषद, देवी-परंपरा और भारतीय समाज का मूल संदेश यही है कि योनि सृष्टि का पवित्र द्वार है।
यह जन्म की, शक्ति की, मातृत्व की और चेतना की प्रतीक है।
इसे अपवित्र कहना न केवल स्त्री का नहीं, बल्कि देवी, सृष्टि और हमारी आध्यात्मिक परंपरा का भी अपमान है।
योनि नरक का द्वार नहीं—मुक्ति का द्वार है।
यह सृष्टि का मंदिर है, और हर जीव का पहला आकाश।
